6 दिन,
एक ऑर्टिकल और ढ़ेरों कमेंट्स...सोचा नहीं था.. बात निकलेगी तो इतनी दूर तक जाएगी। इस बार भी
मोबाइल की घंटी बजी, एक बार नहीं बार-बार किसी ने कहा ये हमारे चैनल का एचआर है न ! तो किसी को मेरे करियर की परवाह थी, कुछ लोग मीडिया से भागने की
सलाह दे रहे थे...तो कोई धमकी भरे अंदाज़ में डराने की कोशिश कर कर रहा था। हद तो तब हो गई जब आस-पास के लोग जो हमेशा साथ होने का दावा करते थे उन्होंने बात करना बंद कर दिया...जानकर हैरानी हुई कि इनमें से कुछ वही लोग हैं जो पत्रकारिता में आम आदमी की आवाज़ बनने का दम भरते हैं। अब इनके बारे में क्या कहूं बस इतना काफी है..."अपनी नज़रों से कभी नज़रे मिलाकर देखना, मर चुके हो तुम ये ख़बर मिल ही जाएगी" और इसी बीच उनका कॉल भी आया जो लोग उस एचआर से रोज रू-ब-रू होते हैं। किसी ने विरोध किया तो कोई दबी आवाज़ में मेरे साथ खड़ा था...मगर बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो ये जानना चाहते थे कि आखिर इंटरव्यू के समय उस रूम में पंद्रह मिनट और क्या हुआ। ये कुछ ऐसी बाते हैं जो शायद मैं खुद से भी दुबारा नहीं कह पाऊंगी....यकीन मानिए आज भी जब मैं आईने के सामने खड़ी होती हूं तो हर बार वो सवाल कानों में गूंजने लगते हैं। मैं कैसे लिख देती उस वक्त को जिसमें हर
मिनट हर सैकेण्ड मेरे सपनों का खून हो रहा था...कभी आईना देखा है..? ये सब अंग्रेजी में क्यों नहीं लिखा..?? तुम्हारी भाषा बहुत खराब है..??? गणेशशंकर विद्यार्थी और प्रेमचंद के हिन्दुस्तान में हिन्दी में लिखना इतना बड़ा गुनाह हो गया कि मेरे परिवार को भी नहीं बख्शा गया।
और भी कुछ ऐसे सवाल जिनके सामने वक्त भी अपने होने पर सर झुकाए खड़ा था। मुझे याद है आज से दो साल पहले का वो दिन जब पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी करके मैं दिल्ली आई थी, ये सोचकर कि एक दिन जो मेरे टीचर्स और मेरे अपने जो कहते हैं उसे पूरा करूंगी... सच.. एक गज़ब का आत्मविश्वास था, लेकिन धीरे-धीरे सच्चाई सामने आती रहीं। लगभग आठ महीने मैने फिल्म सिटी के इतने चक्कर लगाए कि कोई ऐसा चैनल नहीं बचा जिसके गेट पर खड़ा होने वाला गार्ड मुझे पहचानता न हो..याद है वो दिन भी जब तीन रूपये बचाने के लिए युसुफ सराय से जैन टीवी तक पैदल जाया करती थी। मुझ जैसे हज़ारों लोग
हर साल ऐसे ही कुछ सपनों की गठरी साथ लेकर दिल्ली आते हैं। मगर वे लोग जिनके कमरे में एसी, सामने एलसी़डी और आने-जाने के लिए बडी़-बड़ी गाड़ियां होती है कभी अपने मूड के कारण या कभी शक्ल-ओ-सूरत को आधार बनाकर उन्हें बाहर का रास्ता दिखा देते हैं और वे भूल जाते हैं कि इंसान को मारने से ज्यादा उसके सपनों को मारना बहुत दर्द देता है....इस लेख को लिखने का मकसद हंगामा खड़ा करना नहीं बल्कि एक कोशिश थी ये बताने की......"खुद में देखा तो सपने बाकी हैं अभी भी, जज़्बातों से खेलना सही से आया नहीं तुम्हे"।
good article
bilkul sahi kaha apne...such saamne aate hi sab apko akela chod alag ho jaate hain...lekin tareef hai apki himmat aur imandaari ki jo apne is vaakye ko bayaan kiya aur such ko saamne laayi....aur shayad us band kamre me hui baato ko bina bataye bhi main samjh sakta hu ki kaisa vyavhaar hua hoga apke saath...ye shayad hamare desh ki vidambana hi hai ki apni matrbhasha pe garv karne ki bajay hum parayi bhasha pe fakr mehsoos karte hain....khair...lekh ke liye badhai.
क्या लिखूं समझ नहीं आ रहा है आपका लेख पढ़कर मुझमे भी एक अलग सा आत्मविश्वास जग गया है आपका शुक्रिया....
humne pahke bhi likha tha ki aisha to hota hai. par sabke sath ho yeh bhi jaruri nahi, aapke himmat aur shahas ke sath sach ko ujagar karne ki disha me rafta rafta badhta kadam tarif k kabil hai. jindagi se kabhi nirash hone ki jarurat bhi nahi baki to uperwala sab dekhta hi hai phir bhi mai ek bat avasy kahana chahunga ki aise longo ko benakab karna hi chahiye jo aadhi aabadi k sath yogyata ki kadr hi na karna jane, aapki lekhan sailly se to aisha bilkul bhi nahi lagta ki patrkarita k liye aap me koi kami hogi phir jindagi ko salam karne ka yeh punit abhiyan dhire dhire ek karwan ka rup le lega tab aap payenge ki duniya ki bhid me apni alag pahchan bana liye ho.
salam jindagi
तुम्हारे दर्द को समझ सकता हूं.. मीडिया में चमक-दमक को सभी सलाम करते हैं... कम से कम कैमरे के सामने तो यही होता है।
sudhi very honestly u have expressed ur feelings.... as u said ki english mein jawab na dene par aisa hua to mai to kahungi... sawaal uske aage khade karne chahiye jise apni mother tongue "hindi" nahi aati..... i think u can express urself better in hindi... article is really gud nd end was the best part....
thokar khate khate bhatkate bhatakate pata nahi kab manzil ki taraf badhne ka rasta nazar aa jata hai..chalna shuru kar diya hai safar bada shandar hota ja raha hai...bahot acha lokha dost
"इंसान को मारने से ज्यादा उसके सपनों को मारना बहुत दर्द देता है.."
ye sirf aapki kahani nhi hai,un sabhi logon ki kahani hai,jo iss media field mein kuch karna chahate hain