
एक शाम दिल के दरवाज़े पर मासूम-सी दस्तक
हाथों में कुछ अनजाने सवाल लिए खड़ी थी
आंखों में था अश्कों का समंदर...
और दुपट्टे में छोटी-सी गांठ बंधी थी
बोली बताओ, ये अनजाना सा स्पर्श क्यों अपना-सा लगता है
क्यों अंदर तक उतर जाती है उसकी खुशबू...
क्यों मन माज़ी के ख़्यालों में डूबने लगता है
डरती हूं छण भर की खुशी ज़रूरत न बन जाए मेरी
ये आंसू कह न जाए दास्तां मेरे बचपन की
न चाहकर भी ये नमीं आखों में समाने लगी
अतीत की परछाईं सामने आकर डराने लगी
नहीं मांगती हूं प्यार किसी की डांट का
नहीं चाहिए ख़्वाब किसी से उधार का
जैसे जीती हूं वैसे ही जीने दो...
ख़्वाब नहीं तो क्या उसका एक टुकड़ा ही रहने दो....
सुधी सिद्धार्थ