जिस एंकर ने मेरे से अभी हाथ मिलाया था, मेरी कुर्सी की बगल में अपनी कुर्सी लगाकर बैठ गया और शुरू हो गया.....और क्या चल रहा है? मेरा मन बस इसी उधेड़-बुन में लगा हुआ था कि यह बदलाव कैसा? आखिर यह हो क्या रहा है? जनाब मेरी मित्र से बात करने लगे। तरह तरह की बातें। मैं थोडी देर के लिए उठ कर चला गया। जब वापस आया तो देखा कि उनका बेतहाशा वार्तालाप अब भी जारी है। पास गया तो बॉय फ्रेंड और गर्ल फ्रेंड की बातें कर रहे एंकर जी बड़ी ही संजीदगी से उससे पूछ रहे थे कि 'कोई बॉय फ्रंड है आपका?'.
मुझे मेरे सवालों का जवाब मिलने लगा। लोग कहते हैं कि यह कारपोरेट जगत है। यहां मैंने कइयों को अपना बनाना चाहा, लेकिन यहां भावनाओं की कोई कद्र नहीं होती। न्यूज चैनल में बदलते लोग, बदलती सूरत और बदलते स्वभाव का मतलब क्या होता है, मैं समझ नहीं पाया। मेरा मकसद कुछ और था पर आज जिस तर्ज पर और जहां मैं खडा हूं, वहां से एक सुखद एहसास बिलकुल नहीं होता। जिन्दगी को एक नई सोच के साथ हर सुबह जीने की कोशिश करता हूं, पर हर शाम को हार ही मेरे हाथ लगती है। मुझे मालूम है कि ये नाजुक संतुलन, ये खूबसूरत लचीलापन, ये शानदार काया और यह मेहनत, एक बड़े कारोबार के लिए है। यह बाजार है। पत्रकारिता का कोई अर्थ यहां नहीं रह जाता। प्रभाष जोशी के नए आक्रामक लेख मुझे उतेजित कर रहे हैं। मैं उनके साथ खड़ा हूं, लेकिन सच यही है कि मैं निर्दोष नहीं हूं। कीचड़ में पड़े किसी पत्ते की तरह मैं पानी के डालने पर साफ नहीं हो सकता। मैं अपने हाथ-पांवों को छटपटाने की कोशिश कर रहा हूं। मैंने भी लोकतंत्र के नए स्तंभ में सेंध लगाई है। मैंने भी खबरों को बेचने में अपनी भूमिका निभाई है। मैं निर्दोष बिल्कुल नहीं।
मैंने पत्रकारिता की शुरुआत में एक प्रतिष्ठित अखबार में इन्टर्नशिप की। उसके बाद सबसे तेज यानी फ्री टाइम्स न्यूज चैनल (काल्पनिक नाम) गया। खुद को सौभाग्यशाली मानने लगा। फ्री टाइम्स में इन्टर्न था। वहां कई बार ऐसा हुआ कि कोई गेस्ट आया है तो उसका ब्रीफकेश लेकर बाथरूम के बाहर खड़ा रहा, क्योंकि इसे हमारा फर्ज बताया गया था। मेहमानों की खातिरदारी मैंने इन्टर्न के दौरान ही सीखी। मुझे याद है, जिसे आप बेहतर पत्रकार, बेहतर एंकर मानते हैं, उसने मेरे दोस्त से चीख कर कहा था- ऐ लड़के यहां आओ। मुझे विश्वास नहीं हुआ। जिन्हें अपना आदर्श मानता हूं, उनका यह कौन-सा रूप है? उस
पत्रकार ने मेरे दोस्त से कहा कि यह लो पांच रूपये और मेरे लिए कचौड़ी ले आओ। मैं सवालों में डूब चला कि यह सब क्या हो रहा है? फ्री टाइम्स न्यूज चैनल में 45 दिनों तक ही इन्टर्न मिलती है, पर मुझे छह महीने की इन्टर्न मिली। खुश था कि जिन्दगी में जिन्हें कभी अपना आदर्श माना था, वह मेरी आंखों के सामने हैं। कई बार दिल ने कहा कि कही यह आंख का धोखा तो नहीं है!
अपने आप को किसी जानवर की तरह नोच कर न जाने क्यों इतराता रहा कि यह जो चल रहा है, सब हकीकत है। फ्री टाइम्स में मैंने बहुत कुछ सीखा, लेकिन हकीकत यही है कि कोई कभी नहीं सिखाता। जिन लोगों के साथ मैं सीख रहा था, मैं जानता था कि वो हिन्दुस्तान के बड़े लोग हैं, जिनका नाम मीडिया में अदब के साथ लिया जाता है। मैं अपने लेख में नहीं चाहता कि उनका नाम उजागर करूं। खैर, कहानी को आगे बढाते हैं। फ्री टाइम्स में जिस दौर में था, मैं अपनी भूमिका को जानता था। एक ऐसी भूमिका, जहां आपको कोई काम नहीं देगा। आपको पीछे बैठकर सीखना है। अगर कोई डांट दे तो आप सिर्फ सुबक सकते हैं। अगर आफिस नहीं आते तो कोई बात नहीं, कोई पूछने वाला नहीं, लेकिन मुझे भी मौका मिला। मैं फ्री टाइम्स में पहले टिकर और स्ल्ग्स की गलतियों को देखता था। मुझे लगने लगा था कि यहां शायद जॉब का भी चांस मिल जाए। हमने सोचा, मेहनत से काम करेंगे, खूब मन लगाकर काम करेंगे, इतना करेंगे कि लोग हमको नोटिस करने लगें। बस कुछ ही दिनों में मोटी सी फाइल बनाकर हमने अपने हेड को फॉरवर्ड कर दी। सोचा, बॉस खुश तो शायद कुछ बात बन जाए। दो महीने तक यही सिलसिला चलता रहा।
हमें बताया गया कि अब रात में आना है। सोचा, फ्री टाइम्स में रात को इन्टर्न नहीं आ सकते, लेकिन हमें परमिशन दी गई, यह संकेत मेरी जॉब को लेकर भी हो सकता है। उस रात मैं सो नहीं पाया। मैं रात की शिफ्ट में आने लगा। उस दिन मैंने सभी दोस्तों को फोन किया। सबको बता दिया कि तेरा भाई अब नौकरी पाने वाला है। मां और पापा को अपने बेटे पर नाज होने लगा- शायद बेटा बड़ा हो गया है। वक्त बीत रहा था। मुझे दो महीने से ज्यादा हो गए थे। हमें साफ तौर कहा गया कि आप सिर्फ राजू श्रीवास्तव के विजुअल्स ही निकालेंगे। मैं जानता था कि पत्रकारिता बदल रही है। राजू उन दिनों बहुत बिक रहा था। वक्त की यह नई पत्रकारिता मुझे भटका रही थी। कभी हमारे सर कहा करते थे कि जो बाजार के साथ नहीं चलता, बाजार उसे बर्बाद कर देता है। शायद यह बात मेरे चैनल वाले भी जानते हैं। यही सोच कर मैं चला आया। मुझे आये हुए चार महीने हुए थे। मेरे लिए हालात अब बदल रहे थे, क्योंकि फ्री टाइम्स के मीडिया इंस्टीच्यूट के स्टूडेंट आने वाले थे। जब पहली बार वे फ्री टाइम्स में आये तो कई चीजों के बारे में नहीं जानते थे। काफी कुछ उन्हें मैंने बताया।
मैं उनकी मदद करना चाहता था। मैंने उन्हें वह सब सिखाया, जो फ्री टाइम्स में बड़ी मुश्किल से सीखा था। दूसरी ओर, मेरी मेहनत भी जारी थी। अब वक्त को करवट बदलना था। मुझसे कहा गया कि आप अपने हेड से मिल लें। मैं दिन में पहुंचा मिलने। उन्होंने कहा कि आप का काम अच्छा है। मैं मन ही मन खुश होने लगा। अचानक दूसरे ही पल उन्होंने कहा- ''ठीक है, अब आपकी इन्टर्न खत्म हो रही है। मैं एचआर में फोन कर देता हूं। कल आकर अपना लेटर ले जाना।''
मैं सन्न रह गया। आंखों के सामने अंधेरा छा गया। जैसे कोई फिल्म फ्लैश बैक में जाती है, लगभग वैसे ही। मुझे अपनी सर्दियों की रातें याद आने लगीं। मुझे वो बातें याद आने लगीं जो मुझे बड़ा करती थीं। अचानक सर ने पूछा- अरे आप का नाम क्या है? तभी न जाने क्यों, वो इज्जत जो मैं उन लोगों की करता था, पानी में चली गई। जिन लोगों के लिए मैं रात भर मेहनत करता रहा, उनको मेरा नाम तक याद नहीं।
मैंने कहा- ''सर नौकरी का कोई चांस नहीं?''
उन्होंने कहा- ''नहीं यार, यहां कहां। पॉसिबल नहीं। हमारा मीडिया संस्थान है। वहां देख लो।''
मैं जानता था कि जिन लोगों के साथ मैं काम कर रहा था, वे बहुत बड़े हैं, लेकिन वे इतने बड़े हैं, मैं नहीं जानता था। मैं घर जाकर क्या जवाब दूंगा, पापा के सपनों को किस तरीके से चकनाचूर होते हुए देखूंगा? बस आंखों में पानी भर आया और इन सब बातों ने कब आंसुओं का आकार ले लिया ...कुछ पता ही नहीं चला। मैं असफल इनसान बन चुका था। वो इंसान, जो हार रहा था
इस बाजार से ...और अपने आप से। सोचा, मैं घर क्या चेहरा लेकर जाऊंगा? अब बस यही सवाल था। घर गया। मन विचलित था। मम्मी ने कहा- क्या हुआ? मैं उसके आंचल में सिमटने लगा। मां को यह समझने देर न लगी कि ऑफिस में कुछ गलत हुआ है। मां को बताया। मां तो मां है, बेटे के गाल सहलाते हुए बोली- कोई बात नहीं बेटा।
अब पत्रकारिता का भूत उतरने लगा है। उस दिन मैं जल्दी सो गया। अगले दिन जल्दी उठना था। आफिस जाना था, काम पर नहीं, अपना लेटर लेने। लेटर लेकर जब लिफ्ट से उतर रहा था तो खुशी से सराबोर एक ग्रुप सातवीं मंजिल से नीचे आ रहा था। मैंने अचानक थमकर सिर उठाया, अरे तुम? ये लोग उस चैनल से थे। उन्होंने पूछा- सर जॉब मिल गई? मैंने कहा- क्या बात है? उन्होंने दूसरा सवाल पूछा- आपका क्या हुआ? मैंने अपने हाथ का लेटर उनके हाथ में थमा दिया और आंखें नीचे झुका कर कहा- मेरी इन्टर्न खत्म हो गई है। उस बात को अब वक्त बीत गया है। अब, जब उस चैनल को देखता हूं तो वे लोग एंकर, रिपोर्टर, विश्लेषक बन गए हैं, जिन्हें अपने हाथों से समझाया था कि यह फ्रेम होता है, यह सेकेंड होता है और यह...
और यह घंटा होता है।
वे अब बड़े हो गए हैं, और मैं छोटा रह गया ?
मंजिल पर जो पहुंच गए, उनको तो नहीं है नाज़ ऐ सफ़र,
जो दो कदम भी चले नहीं, वे रफ्तार की बातें करते हैं!
अपनी राय दे और प्रोत्साहित करें ......................
अजीब जिन्दगी है मिडिया की वहाँ कोई अपना और पराया है , सभी को आगे निकलने की जल्दी है ।
janab yahi to sach hai media ka......jisse sabka vasta hota hai khastor par oonhe jo patrakarita ko aaj bhi pavitra mante hai
जिस तरह के एक्सपीरिंयंस से तुम गुज़र चुके हो उसकी वजह से ही तुम्हे ये खराब लगता है। और सच है कि ये है इसको हमें स्वीकार करना होगा पर इससे झेलना ही उन लोगों की नियती है जो इस दुनिया में बिना गॉडफादर के आये हैं. इसलिए तैयार रहो इस सबके के लिए क्यों जब तक इससे लड़ोगे नहीं तब तक इस पर जीत की खुशी महसूस नहीं होगी अपना सफलता पर खुशी नहीं होगा। इसलिए लड़ो
ग्लामौर से भरे इस धुंधले मीडिया जगत में भावनाओं की न तो कोई जगह ही है और न ही कोई कद्र है, यह तो एक ऐसी ईमारत है जिसमें उपर की तरफ बढ़ने के लिए लोगों को रोंदते हुए चलना पड़ता है, इसलिए मीडिया के इस धुन्दले और कठोर जगत में तुम्हे सीखना भी चीनके होगा और आगे भी चीनके बढ़ना होगा, भावनाओं को समझने वाले यहाँ इका दुक्का ही होंगे, तो इस मीडिया रूपी संसार में जीना के लिए तुम्हे बड़ा होना ही पड़ेगा.... मेरी शुभ कामनाएं तुम्हारे साथ है....
आशीष भाई मीडिया के तमाम स्ट्रगलर के ऐसे ही हालत हैं , बड़े बड़े पत्रकार की पैरवी साथ ना हो तो वही होता है जो आप के साथ हुआ . मैं भी फिलहाल ऐसे ही दौर से गुज़र रहा हूँ , समझ सकता हूँ जो आप के ऊपर बीती होगी . बड़े बड़े पत्रकार टीवी पर जैसी बातें करते हैं बैसे नहीं होते ...
I appreciate your writing you have a great writing skill It was great emotinl letter for all and Dont worry tum waqai hi bade ho gae ho lekin tum dusro ke baddapan ko unke Ohdo se mat aanko bada insan wahi hota hai jo choto ko samman de or unhe sath lekar chale. Ye halat hi hame zindagi ki sachaiyio se awgat karate hai yahi batre hame ache bure ki samajh bata hai. "Jab tak tumhe bure ka pata nahi chalega tum ache ki kadra nahi kar paoge" Yehi zindagi hai mere dost.
भाई मै तो सिर्फ जादू की झप्पी ही दे सकता हू .............. क्योकि जहाँ भी जाओगे सिर्फ गंदगी ही मिलेगी ................और जितना ऊपर बढोगे उतनी ज्यादा गंदगी मिलेगी ...............
रंग बरसती इस दुनिया का यही तो काला सच है। जिस पर परदे पर हसीन सपने दिखते हैं, उसके पीछे बड़ी कड़वी सच्चाई होती है। शुक्र है, आपने इतनी कम उम्र में ही इतना सबकुछ देख लिया। अब आगे कभी धोखा नहीं खाओगे.. GOD BLES U...
bus itna kahunga aankho me aansu aa gaye ..
u r writing skills is to good ,likhte raho
आशा है जिस काजल की कोठारी में आप घुसे है वहां अपना दामन बेदाग रख पाएंगे.
एक बात और समझौते करके आप आसान रास्ते तो पा सकते हैं लेकिन मंजिल नहीं. शुभकामनाये स्वीकार करें.......
really good bhaai
sach mai tumhara article padhkar mere aankhon ami aansu aa gaye..kyunki iss so called corporate world ki sacchai yahi hai..yahan par kisi koi farak nahi padta hai hi aap kitni mehnat kar rahe hai aur kitni lagan se kaam karte hai ..kyunki agar yahan kuch matter karta hai tho vo sirf cmachagiri aur kuch nahi..
जब दुनियादारी समझ आने लगे तो मान लेना चाहिये कि आप छोटे नहीं रहे बड़े हो गये हैं.आज के ज़माने में कुछ करना है ,आगे बढ़ना है तो अपने उसूलो ,आदर्शों को ताख पर रखना होगा .ये बात हर क्षेत्र में लागू होती है .निशाचर जी ने सही कहा है...समझौते से मंजिल नही मिलती ....अपार सम्भावनाये हैं आपमें ,समझौतावादी न बने और आगे बढ़ते रहें ....शुभकामनाये .
दोस्त, परेशान मत हो सारे चेनलो का यहि हाल है, पत्रकरिता को बर्बाद कर दिया चेनलो ने, इनमे सब दिखावा होता है कोइ किसी का नहि होता,मतलबी दुनिया है,पता नही ऐसा करने से क्या मिलता है इन चेनलो को, लेकिन इसी से हमे सीखने को मिलता है|
दोस्त, परेशान मत हो सारे चेनलो का यहि हाल है, पत्रकरिता को बर्बाद कर दिया चेनलो ने, इनमे सब दिखावा होता है कोइ किसी का नहि होता,मतलबी दुनिया है,पता नही ऐसा करने से क्या मिलता है इन चेनलो को, लेकिन इसी से हमे सीखने को मिलता है|
आशीष बहुत अच्छा लिखा आपने, क्या यही मीडिया की असली सचाई है.अगर यही सच्चाई है तो मुझे अपने पहले ही कदम पर डर लग रहा है. लेकिन फिर भी मैं मीडिया में ही कुछ कर दिखाना चाहती हूँ.
मंजिल पर जो पहुंच गए, उनको तो नहीं है नाज़ ऐ सफ़र,
जो दो कदम भी चले नहीं, वे रफ्तार की बातें करते हैं!
आशीष जी आप ने तो मीडिया की दुसरे पहलू को उजागर कर हमारी आँखे खोल दी. पर वे कदम ही क्या जो दो कदम ना चल पाए.
apme writer ke sare gun hai..creative mind hai. past ko pichhe chodiye aur chamkate future ke liye age badhiye....
ashish us samay aapke mann mein kya chal raha hoga mai samajh sakti hun... mai bhi ek reputed channel mein internship kar chuki hun.... jahan reporters khud ko kisi celebrity se kam nahi samajhte the... ye media hai where there is no place for emotions n feelings... with salaam zindagii...u r doing gud job keep it up.....
yaar tumne rula diya
ise kehte hailekh .....keep it up
jai hind
exccellent write up...
true concern n pain...
this is real world n u hv to PERFORM here !!
ऐ वाइज़े नाद़ा करता है... तू एक क़यामत का चर्चा.... यहां रोज निगाहें मिलती हैं... यहां रोज़ क़यामत होती है।
आशीष.... मन से लिखा...और मन को छुआ आपने। सच कहूं तो आपकी लेखनी में जादू है... अपने दर्द को हरफ़ों में उतार दिया है आपने... दुआ करती हूं कि आप हमेशा खुश रहें।
thanks aashish
dard ko bus utaaraar diyaa aapne ....outstandind
sahi kaha aapne...ek naukri paane ke liye aap jis tarah apne kaam ko dil lagakar karte hain...waha ka boss apka naam hi nahi jaanta...bht dukh hota hai aise waqt...lekin shayad ye kuch naya nahi hai...shayad apke haato me guest ka sootcase tha aur kisi ke haath me camera ka tripod...aur unse kaha jaata hai"dekho jab p.c. shuru hone wali ho to tripod laga dena...mana ki tum camera assistant ho lekin camera ko haath mat lagana...mehnga hai...kharab ho jayega".
lekh ke liye badhai.
Ashish
Afsos hua ye jan kar ki ap apni mehnat ka muavja chah rahe the. are yar, bat to tub hai jb ap bina kisi expectation ke mehnat kiye jate. kisi ne koi comittment to kiya nahi tha apse jo ap unhe dosh de rahe ho? aur her kisi ka god father wali bat bhi jamti nahi. jara dekho-kitne log god father ke sahare upar gaye aur kitne apni pratibha ke? ye aisa field hai jisme jitna tapoge, utna behtar nikhroge. maine bhi 7 baras struggle ke bad naukari pai lekin un 7 saalo me kaam se lekar zindagi tak k bare me sikha. un 7 barso ke struggle ka koi doshi nahi.
hazaron khwahisen lekar hum bhi ghar se chal diye intern karne ki wohi banoonga jo ghar bethkar dekhta hoon lekar yatharth ke daratal par aaya to hi samajh paya ki yogyata kuchh nahi jugarh hi yogyta hai..... bhut achha likha hai ashish.
bhai main bhi aapki tarah naya naya iss media jagat me aaya hun
bhai ye to maine bhi dekha hai ki yahan bhavnaon ki koi kadar nahi hoti bhai main tere sath hun mera no hai 9213932861 shayad dono hum ek hi dor se gujren hai