मुझे सपनो से अब ना जाने क्यों डर सा लगता है .. इस शहर में ,इस रोड पर या इस मुल्क में .... लाशें सी दिखती है हर चलती हुई ज़िन्दगी ....
मेरे सपनो में बसती थी कभी वो ज़िन्दगी जहाँ ..
हर कोई मुस्कराता था...................
लेकिन जब आँखें खोलू तो पता है चलता ......
यहाँ बचपन भी चीखता ....जवानी सुबकियां लेती
ना चुल्हें पर ना दादी बैठती .....ना अब माँ चिल्लाती है ,
ना दादा की आहट से .....सर्द रातों में ...अब कोई नहीं छिपता....
बच्चों की तरह हँसती-खेलती थी कभी वो जिंदगी अब आँख खोलू तो पानी कहीं दि
खता...
इस मेट्रो से देखूं बस दौडती दुनिया .... और पीछे देखूं तो ,, मैं भी तो दौड़ता
... बस जहाँ तलक नज़र जाती ...ना माँ नज़र आती ...ना दादी नज़र आती
ना जाने क्यों आँखे इस शहर में ...मेरे से ही इतराती ... ..
अब सपने देखने से कापता हूँ मैं ..
क्योंकि यह सच बताते है और आँखें भिंगाते है ...
यह सच है ..मेरी माँ ....मुझमे आज मिलावट है ,इस शहरी बाबू में तेरा बेटा गर कही पर हों
तेरी वो हर आश झूटी है जो चूल्हे पर कपकपाते हुए..... तुने सोची हों
बहिन से कह सको तो कह देना ...राखी भेज सकों तो गर कभी आराम से भेज ही देना
दादा से कहना ...क्या लाठी कपकपाती है ....???
गर मेरा इन्तेज़ा जो करना तो गलती कही होगी दरसल में गलत नहीं ... मेरा काम ही ऐसा ..
कोई खबर जो छुट गई ... मेरा बोस डाटता बहुत है...
मैं पत्रकार हूँ मैं माँ ...गर तूने गावं में जो चीखा ... माँ गलती कहीं होगी ..गलती कही होगी ...
तू बीमार है माँ ....मैं जानते हुए भी .....अब यह मानता नहीं
मेरा काम ही ऐसा ..मेरा काम ही ऐसा
कही रिश्तों से बिखरे हुए खून के कतरों को ...एक नई कहानी सी दिखती ,...
मेरे माँ बाप से बड़कर ... यह trp क्यों लगती
मेरा काम ही ऐसा ..मेरा काम ही ऐसा
मैं सपने देखता ....सब लोग चीखते ...बस माँ ना चीखती ..ना दादा चीखते
ऑफिस में देखूं तो ...कही कोई रेप हुआ होगा ..कही सियासी नाव चली होंगी ...खूनों की नदियों में ..
माँ मुझे निर्दोष ना तू सोच ..इस दौडती दुनिया ..
मैंने भी ऐसे ही trp दिलाई है मैं सपनो में भी चीखता ..बस बदहवासी में...
मैं दौड़ता रहता ... आदत जो पड़ी थी ...खबरों के ब्रेक की ...हर कोई इठलाये ...अपने पे इठलाये
ऐसा नहीं माँ मैं मजबूर हो किसी से ....
मिलता हूँ तुझसे जेसे आँखें लगी हो मेरा काम ही ऐसा ,
मुझे सपनो से अब ना जाने क्यों डर सा लगता है .. इस शहर में ,इस रोड पर या इस मुल्क में ....
लाशें सी दिखती है हर चलती हुई ज़िन्दगी .... मेरे सपनो में बसती थी कभी वो ज़िन्दगी जहाँ ..हर कोई मुस्कराता था लेकिन जब आँखें खोलू तो पता है चलता .....
.यहाँ बचपन भी चीखता ....जवानी सुबकियां लेती ना चुल्हें पर ना दादी बैठती ....
.ना अब माँ चिल्लाती है , ना दादा की आहट से .....
सर्द रातों में ...अब कोई नहीं छिपता....बच्चों की तरह हँसती-खेलती थी कभी वो जिंदगी अब आँख खोलू तो पानी कहीं दिखता...
इस मेट्रो से देखूं बस दौडती दुनिया .... और पीछे देखूं तो ,, मैं भी तो दौड़ता ...
बस जहाँ तलक नज़र जाती ...ना माँ नज़र आती ...ना दादी नज़र आती ना जाने क्यों आँखे इस शहर में ...मेरे से ही इतराती ... ..
अब सपने देखने से कापता हूँ मैं ..क्योंकि यह सच बताते है और आँखें भिंगाते है ...
यह सच है ..मेरी माँ ....मुझमे आज मिलावट है ,इस शहरी बाबू में तेरा बेटा गर कही पर हों तेरी वो हर आश झूटी है जो चूल्हे पर कपकपाते हुए..... तुने सोची हों
बहिन से कह सको तो कह देना ...राखी भेज सकों तो गर कभी आराम से भेज ही देना
दादा से कहना ...क्या लाठी कपकपाती है ....???
गर मेरा इन्तेज़ा जो करना तो गलती कही होगी
दरसल में गलत नहीं ... मेरा काम ही ऐसा ..
कोई खबर जो छुट गई ... मेरा बोस डाटता बहुत है...
मैं पत्रकार हूँ मैं माँ ...गर तूने गावं में जो चीखा ... माँ गलती कहीं होगी ..गलती कही होगी .
..तू बीमार है माँ ....मैं जानते हुए भी .....अब यह मानता नहीं मेरा काम ही ऐसा ..मेरा काम ही ऐसा
कही रिश्तों से बिखरे हुए खून के कतरों को ...एक नई कहानी सी दिखती ,...
मैं सपनो में भी चीखता ..बस बदहवासी में...मैं दौड़ता रहता ... आदत जो पड़ी थी ...खबरों के ब्रेक की ..
.माँ हर कोई इठलाये ...अपने पे इठलाये
ऐसा नहीं माँ मैं मजबूर हो किसी से .... मिलता हूँ तुझसे जेसे कहीं आँखें लगी हो
मेरा काम ही ऐसा...मेरा काम ही ऐसा यह सच है माँ मैं सपने अब कम ही देखूंगा गर कोई गिला जो हो मुझे माफ़ कर देना
यह सच है माँ ...मुझे सपनो से अब ना जाने क्यों डर सा लगता है ..
,, मैं भी तो दौड़ता ... बस जहाँ तलक नज़र जाती ...ना माँ नज़र आती ...ना दादी नज़र आती ना जाने क्यों आँखे इस शहर में ...मेरे से ही इतराती ... ..अब सपने देखने से कापता हूँ मैं ..क्योंकि यह सच बताते है और आँखें भिंगाते है ... यह सच है ..मेरी माँ ....
..बस माँ ना चीखती ..ना दादा चीखते ऑफिस में देखूं तो ...कही कोई रेप हुआ होगा ..कही सियासी नाव चली होंगी ...खूनों की नदियों में .. माँ मुझे निर्दोष ना तू सोच ..इस दौडती दुनिया .. मैंने भी ऐसे ही trp दिलाई है मैं सपनो में भी चीखता ..बस बदहवासी में...मैं दौड़ता रहता ... आदत जो पड़ी थी ...खबरों के ब्रेक की ...
हर कोई इठलाये ...अपने पे इठलाये
ऐसा नहीं माँ मैं मजबूर हो किसी से ....
मिलता हूँ तुझसे जेसे आँखें लगी हो
मेरा काम ही ऐसा ,मुझे सपनो से अब ना जाने क्यों डर सा लगता है ..
इस शहर में ,इस रोड पर या इस मुल्क में .... लाशें सी दिखती है हर चलती हुई ज़िन्दगी .... मेरे सपनो में बसती थी कभी वो ज़िन्दगी जहाँ ..हर कोई मुस्कराता था लेकिन जब आँखें खोलू तो पता है चलता ......यहाँ बचपन भी चीखता ....जवानी सुबकियां लेती ना चुल्हें पर ना दादी बैठती .....ना अब माँ चिल्लाती है , ना दादा की आहट से .....सर्द रातों में ...अब कोई नहीं छिपता....बच्चों की तरह हँसती-खेलती थी कभी वो जिंदगी अब आँख खोलू तो पानी कहीं दिखता... इस मेट्रो से देखूं बस दौडती दुनिया .... और पीछे देखूं तो ,, मैं भी तो दौड़ता ... बस जहाँ तलक नज़र जाती ...ना माँ नज़र आती ...ना दादी नज़र आती ना जाने क्यों आँखे इस शहर में ...मेरे से ही इतराती ... ..अब सपने देखने से कापता हूँ मैं ..क्योंकि यह सच बताते है और आँखें भिंगाते है ... यह सच है ..मेरी माँ ....मुझमे आज मिलावट है ,इस शहरी बाबू में तेरा बेटा गर कही पर हों तेरी वो हर आश झूटी है जो चूल्हे पर कपकपाते हुए..... तुने सोची हों बहिन से कह सको तो कह देना ...राखी भेज सकों तो गर कभी आराम से भेज ही देना दादा से कहना ...क्या लाठी कपकपाती है ....??? गर मेरा इन्तेज़ा जो करना तो गलती कही होगी दरसल में गलत नहीं ... मेरा काम ही ऐसा .. कोई खबर जो छुट गई ... मेरा बोस डाटता बहुत है... मैं पत्रकार हूँ मैं माँ ...गर तूने गावं में जो चीखा ... माँ गलती कहीं होगी ..गलती कही होगी ...तू बीमार है माँ ....मैं जानते हुए भी .....अब यह मानता नहीं मेरा काम ही ऐसा ..मेरा काम ही ऐसा कही रिश्तों से बिखरे हुए खून के कतरों को ...एक नई कहानी सी दिखती ,... मेरे माँ बाप से बड़कर ... यह trp क्यों लगती मेरा काम ही ऐसा ..मेरा काम ही ऐसा मैं सपने देखता ....सब लोग चीखते ...बस माँ ना चीखती ..ना दादा चीखते ऑफिस में देखूं तो ...कही कोई रेप हुआ होगा ..कही सियासी नाव चली होंगी ...खूनों की नदियों में .. माँ मुझे निर्दोष ना तू सोच ..इस दौडती दुनिया .. मैंने भी ऐसे ही trp दिलाई है मैं सपनो में भी चीखता ..बस बदहवासी में...मैं दौड़ता रहता ... आदत जो पड़ी थी ...खबरों के ब्रेक की ...माँ हर कोई इठलाये ...अपने पे इठलाये ऐसा नहीं माँ मैं मजबूर हो किसी से .... मिलता हूँ तुझसे जेसे कहीं आँखें लगी हो मेरा काम ही ऐसा...मेरा काम ही ऐसा यह सच है माँ मैं सपने अब कम ही देखूंगा गर कोई गिला जो हो मुझे माफ़ कर देना यह सच है माँ ..मेरा काम ही ऐसा...मेरा काम ही ऐसा अब सपने ना देखूंगा , अब मिल ना पाऊंगा सपने में भी माँ तुझसे ... मेरा काम ही ऐसा...मेरा काम ही ऐसा आशीष जैन
मोहल्ला ने यहां तक पहुंचा दिया..बहुत खूब लिखा है।
Zindgi kabhi rukti nahi.. Lekin itne Khubsurat Blog ki Raftar kaise Tehar gayi.. Are bhai Likhna jari rakho...
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