एक दिन चलते-चलते मैं रुकी....
पीछे मुड़कर देखा,फिर वही ग़म खड़ा था...
घबरा के मैंने उससे पूछा...
"कब से चल रहे हो, थक नहीं गए ?
"ग़म ने मुस्कुराकर मेरे चेहरे को देखा
और बोला- कैसी फितरत है तुम इंसानों की
कोई साथ हो फ़िर भी ग़म है,
कोई साथ न हो फिर भी ग़म है...
सुधी सिद्धार्थ
offf...dard dikh raha hai
साला इंसानों से अच्छा तो गम ही ठहरा... कम से कम साथ है तो साथ ही चिपका रहता है... इंसानों की फितरत से दूर...
काश गम को भी इंसानों का ये रोग लग जाये....
www.nayikalam.blogspot.com
बहुत सुंदर रचना
dear achchi nazm hai..... par shuruvat hi gam ko sath lekar chal di abi use aaram karne do..... watever ur blog is mast keep writing.......
और बोला- कैसी फितरत है तुम इंसानों की
कोई साथ हो फ़िर भी ग़म है,
कोई साथ न हो फिर भी ग़म है...
BADHIYA HAI
masha-allah... kya khoob likha hai apne... such kahoo toh dil jeet liya.
अच्छा लिखा है आपने...
बहुत सुंदर रचना